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इ॒दमु॑द॒कं पि॑ब॒तेत्य॑ब्रवीतने॒दं वा॑ घा पिबता मुञ्ज॒नेज॑नम्। सौध॑न्वना॒ यदि॒ तन्नेव॒ हर्य॑थ तृ॒तीये॑ घा॒ सव॑ने मादयाध्वै ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

idam udakam pibatety abravītanedaṁ vā ghā pibatā muñjanejanam | saudhanvanā yadi tan neva haryatha tṛtīye ghā savane mādayādhvai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒दम्। उ॒द॒कम्। पि॒ब॒त॒। इति॑। अ॒ब्र॒वी॒त॒न॒। इ॒दम्। वा॒। घ॒। पि॒ब॒त॒। मु॒ञ्ज॒ऽनेज॑नम्। सौध॑न्वनाः। यदि॑। तत्। नऽइ॑व। हर्य॑थ। तृ॒तीये॑। घ॒। सव॑ने। मा॒द॒या॒ध्वै॒ ॥ १.१६१.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:161» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:5» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सौधन्वनाः) उत्तम धनुषवालों में कुशल अच्छे वैद्यो ! तुम पथ्य भोजन चाहनेवालों से (इदम्) इस (उदकम्) जल को (पिबत) पिओ (इदम्) इस (मुञ्जनेजनम्) मूँज के तृणों से शुद्ध किये हुए जल को पिओ (वा) अथवा (नेव) नहीं (पिबत) पिओ (इति) इस प्रकार से (घ) ही (अब्रवीतन) कहो औरों को उपदेश देओ, (यदि) जो (तत्) उसको (हर्यथ) चाहो तो (तृतीये) तीसरे (सवने) ऐश्वर्य में (घ) ही निरन्तर (मादयाध्वै) आनन्दित होओ ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वैद्य वा माता-पिताओं को चाहिये कि समस्त रोगी और सन्तानों के लिये प्रथम ऐसा उपदेश करे कि तुमको शारीरिक और आत्मिक सुख के लिये यह सेवन करना चाहिये, यह न सेवन करना चाहिये, यह अनुष्ठान करना चाहिये, यह नहीं। जिस कारण ये पूर्ण आत्मिक और शारीरिक सुखयुक्त निरन्तर हों ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे सौधन्वनाः सद्वैद्या यूयं पथ्यार्थिभ्य इदमुदकं पिबत इदं मुञ्जनेजनं पिबत वा नेव पिबतेति घैवाब्रवीतन यदि तद्धर्यथ तर्हि तृतीये सवने घैव सततं मादयाध्वै ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) (उदकम्) (पिबत) (इति) अनेन प्रकारेण (अब्रवीतन) ब्रूयुः (इदम्) (वा) पक्षान्तरे (घ) एव (पिबत) (मुञ्जनेजनम्) मुञ्जैर्नेजनं शुद्धिकृतम् (सौधन्वनाः) शोभनानि धनूंषि येषान्ते सुधन्वानस्तेषु कुशलाः (यदि) (तत्) (नेव) यथा न कामयते तथा (हर्यथ) कामयध्वम् (तृतीये) (घ) एव (सवने) ऐश्वर्ये (मादयाध्वै) आनन्दत ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। वैद्यैर्मातापितृभिर्वा सर्वे रोगिणः सन्तानाश्च युष्माभिः शरीरात्मसुखायेदं सेव्यमिदन्न सेव्यमिदमनुष्ठेयं नेदं चेति प्रथमत उपदेष्टव्याः। यत एते पूर्णशरीरात्मसुखाः सततं भवेयुः ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. वैद्य, माता-पिता यांनी संपूर्ण रोगी व संतानांना असा उपदेश करावा की तुम्ही शारीरिक व आत्मिक सुखासाठी हे सेवन करावे, हे करू नये, हे अनुष्ठान करावे, हे करू नये. ज्यामुळे ते पूर्ण आत्मिक व शारीरिक सुखाने युक्त व्हावेत. ॥ ८ ॥